बचपन
बचपन
वो दिन ही अच्छे थे........
जब टेंशन का नाम होमवर्क होता था,
पैसों का काम टॉफ़ी ख़रीदना होता था,
रिश्ते कट्टी से बिगड़ते थे
और अब्बा से बन जाते थे
वो दिन ही अच्छे थे........
वो दिन ही अच्छे थे........
जब ख़ाना हमारी मर्जी का बना करता था,
भोग भगवान से पहले हमें लगा करता था,
बिस्तर पे जाते ही सो जाया करते थे,
और रोज नये ख़्वाब बनाया करते थे,
वो दिन ही अच्छे थे........
वो दिन ही अच्छे थे........
लाइट ना आने पे दीपक से काम हो जाता था,
चुल्हे में आग जला के खाना बन जाता था,
तंदूर की सूखी कड़क रोटियाँ नहीं,
माँ के हाँथ का ताज़ा खाना मिल जाता था
वो दिन ही अच्छे थे........
वो दिन ही अच्छे थे........
पूछने भर से काम हो जाता था,
माँगने पर तो चाँद भी मिल जाता था,
झूठ बोलने पर डाँटने वाले भी तब थे,
सच की राह दिखाने वाले भी तब थे,
वो दिन ही अच्छे थे........
वो दिन ही अच्छे थे........
चलने पर हाथ मिल जाता था,
रुकने पर साथ मिल जाता था,
थकने पर गोद मिल जाती थीं,
और मेले में कंधे मिल जाते थे
वो दिन ही अच्छे थे........
वो दिन ही अच्छे थे........
हॅसने पे चूम लिया जाता था,
रोने पे चुप करा दिया जाता था,
गुस्से से अपने भी सब डर जाया करते थे,
असली राज तो हम तब किया करते थे
वो दिन ही अच्छे थे........वो दिन भी अच्छे थे........वो दिन बहुत अच्छे थे........
↝ रचित कुमार अग्रवाल
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